डॉ अंजना कुमार कानपुर
वजूद
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भीड़ में अपनों से जो जुदा हो गया
आदमी अक्सर वही तन्हा हुआ
शीशा एक अक्स को वो संभाले भी कैसे
उसका कर उसके वजूद से सस्ता हुआ
होता है दिल मेरा बेचैन होकर
शहर का हर वाक्या धुआं हुआ
तोडेंगे हम कब इन ख्वाबों की ताबीर को
धोखे में है जमाना हर इंसान झूठा हुआ
वक़्त को लग गई नजर किसकी
आज औंधे मुंह है वह गिरा हुआ
रोटियां नसीब ना हो सकी बच्चों को
चेहरे की शिकन का आंसुओं से रिश्ता हुआ।
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